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नगर में महिलाएं खेलेंगी होली, पुरुष रहेंगे गांव से बाहर:अभी भी निभाई जाती है 400 साल पुरानी रियासत कालीन परंपरा

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टोंक जिले के नगर गांव में रियासत काल से चली आ रही 400 साल पुरानी परंपरा अभी भी धूमधाम से निभाई जाती है। होली पर निभाई जाने वाली इस परंपरा में पूरा गांव शामिल होता है। इस साल भी धुलंडी के दिन पुरुष खाना खाकर गांव के बाहर माताजी के थान पर चले जाएंगे। पीछे से महिलाएं निसंकोच होकर बिना घूंघट और किसी लाज शर्म के होली खेलेंगी। इसके पीछे तत्कालीन राजा की सोच थी कि महिलाएं पर्दे में रहती हैं, इन्हें भी स्वतंत्र रूप से होली खेलने का मौका दिया जाना चाहिए। उसके बाद से ही राजा ने यह निर्णय लिया कि इस दिन पुरुष गांव में नहीं रहेंगे। पुरुष दिखा तो कोड़ों से पिटाई करती है महिलाएं
तत्कालीन समय में निर्णय लिया गया कि सभी पुरुष गांव से करीब 3 किमी दूर माताजी के मंदिर में चले जाएंगे। जहां वे समाज उत्थान पर चर्चा करेंगे। वहीं महिलाएं पीछे से एक दूसरे के रंग, गुलाल लगाकर होली खेलेंगी। यह परंपरा करीब 400 साल से चली आ रही है।
इस दौरान कोई पुरुष भूलवश भी गांव में दिख जाता है तो उसकी महिलाएं कोड़ों से पिटाई करती हैं। या कान पकड़कर माफी मंगवाती हैं। ये दोनों ही सजा महिलाएं अपने स्तर पर ही तय करती हैं। पुरुष सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक बाहर रहते हैं। महिलाओं के पर्दा प्रथा को देखते हुए लिया था निर्णय
नगर गांव की सरपंच किस्मत कंवर और इनके पति पूर्व सरपंच राजू सिंह ने बताया कि करीब चार-पांच सौ वर्ष पहले हमारे पूर्वजों का शासन था। उस समय पर्दा प्रथा थी। महिलाएं पर्दा प्रथा का पालन करती थी। इसके चलते धुलंडी जैसे खुशियों के पर्व से महिलाएं वंचित रहती थी। ऐसे में करीब 400 साल पहले तत्कालीन महाराजा के मन में विचार आया कि महिलाओं को भी स्वतंत्र होकर धुलंडी का पर्व मनाने देना चाहिए।
इसी के चलते दरबार बुलाकर निर्णय लिया कि धुलंडी के दिन सभी पुरुष गांव में नहीं रहेंगे। औरर सभी शाम तक गांव से बाहर रहेंगे। ताकि पर्दा प्रथा के चलते इस पर्व से वंचित रहने वाली महिलाएं भी स्वछंद होकर बिना किसी लोक लाज के अपनी इच्छानुसार धुलंडी खेल सके। उसके बाद से ही गांव में यह परंपरा चली आ रही है। लोकगीत गाकर गाजे-बाजे से करती हैं रवाना
परंपरा के अनुसार धुलंडी के दिन छोटे बच्चों को छोड़कर सभी पुरुष गांव से करीब 3 किलोमीटर दूर चावंड माताजी के मंदिर में गाजे-बाजे के साथ चले जाते हैं। 10-12 साल के बच्चे मां के पास रहते हैं।
लोगों को महिलाएं लोकगीत गाकर गाजे बाजे के साथ गोपालजी के मंदिर से रवाना करती हैं। पुरुष वहां पर समाज उत्थान को लेकर अपने-अपने समाज के लोग बैठक करते हैं।
फिर दोपहर को वे भी वहीं एक-दूसरे को गुलाल लगाते हैं। फिर शाम 4 बजे वहां से गाजे-बाजे के साथ ही गांव लौटते हैं। इससे पहले ही गांव की महिलाएं होली खेलने के बाद नहाने समेत अन्य काम भी कर लेती हैं। इनपुट: दीपांशु पाराशर, डिग्गी।

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