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कछवाहा वंश की खंगारोत शाखा के संस्थापक महाराव खंगार कछवाहा की 500वीं जयंती नरेना में ऐतिहासिक गौरव, श्रद्धा और भव्यता के साथ मनाई जा रही है। इस मौके पर नरेना में विभिन्न ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला आयोजित हो रही है, जिसमें शोभायात्रा, वीरगाथा पाठ, ऐतिहासिक व्याख्यान, सांस्कृतिक संध्या, वंशजों का सम्मान समारोह और सामूहिक भोज जैसे आयोजन शामिल हैं। नरेना दुर्ग में महाराव खंगार की स्मृति में विशेष पूजा-अर्चना की गई, साथ ही विजय स्तंभ पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई। आयोजन का उद्देश्य युवा पीढ़ी को महाराव खंगार के अद्वितीय शौर्य, त्याग और बलिदान से परिचित कराना है ताकि वे अपने गौरवशाली इतिहास से प्रेरणा लेकर समाज और राष्ट्र सेवा में आगे बढ़ सकें। यह जानकारी जयपुर के डिग्गी पैलेस में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ओम शिव प्रताप सिंह महेशवास ने दी। इस अवसर पर राघव प्रताप सिंह डिग्गी, त्रिवेन्द्र सिंह बोराज, जोगिंदर सिंह सावरदा और चरणजीत सिंह पथराज भी उपस्थित रहे। महाराव खंगार का योगदान महाराव खंगार ने अपने अदम्य साहस, संगठन शक्ति और दूरदर्शिता से नरेना को एक संगठित और सशक्त ठिकाने के रूप में स्थापित किया। उन्होंने 500 अश्वारोही और पैदल सैनिकों की संगठित सेना तैयार की, जो नरेना की रक्षा के साथ क्षेत्र में न्याय और व्यवस्था बनाए रखने में भी अग्रणी रही। वे न केवल एक वीर योद्धा, बल्कि कुशल प्रशासक और धर्मनिष्ठ शासक भी थे। उनके शासनकाल में नरेना में तालाब, कुएं, बावड़ियां, मंदिर और धर्मशालाओं का निर्माण हुआ, जिससे जनता को स्थायी लाभ मिला। उनके दरबार में न्याय की त्वरित व्यवस्था थी और वे प्रजावत्सल शासक के रूप में प्रसिद्ध रहे। महाराव खंगार , कछवाहा वंश की खंगारोत शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। वे आमेर नरेश राजा पृथ्वीराज कछवाहा (जो राणा सांगा के साथ खानवा युद्ध में शामिल थे) के पौत्र और महाराव जगमाल कछवाहा के ज्येष्ठ पुत्र थे। संवत् 1639 विक्रमी (1582 ई.) में पिता के स्वर्गवास के बाद नरेना की गद्दी संभालते हुए उन्होंने खंगारोत वंश की नींव रखी और नरेना को राजधानी बनाकर इसे एक सशक्त ठिकाने में तब्दील किया। उनका जीवन युद्ध कौशल, नीति, पराक्रम और समर्पण की मिसाल रहा। उन्होंने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण युद्धों में भाग लिया, जिनमें अकबर का गुजरात अभियान, इब्राहिम हुसैन की बगावत और प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध (1576) में उनकी सक्रिय भूमिका रही। रणभूमि में उनके शौर्य और विजय के अनेक प्रसंग आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।

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